श्रीमद्भगवदगीता के यह 11 मैनेजमेंट सूत्र आपके जीवन के हर क्षेत्र में हर उम्र में आपके काम आएंगे | Shrimad Bhagwad Geeta ke yeh 11 management sutra aapke jeevan ke har kshetra mein har umar mein aapke kaam aayenege.

श्रीमद्भगवदगीता के यह 11 मैनेजमेंट सूत्र आपके जीवन के हर क्षेत्र में हर उम्र में आपके काम आएंगे | Shrimad Bhagwad Geeta ke yeh 11 management sutra aapke jeevan ke har kshetra mein har umar mein aapke kaam aayenege.

श्रीमद्भगवदगीता को हिंदू धर्म (Hindu Religion) में बड़ा ही पवित्र ग्रंथ माना जाता है। गीता के माध्यम से ही भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी। वास्तव में यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण जी के कलयुग (Kalyug) के मापदंड को ध्यान में रखते हुए ही दिया है। श्रीमद्भागवदगीता किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए है।

आईआईएम से लेकर दूसरे मैनेजमेंट स्कूल्स (Management Schools) तक में गीता को प्रबंधन की किताब के रूप में पहचान मिली है। गीता दुनिया के उन चंद ग्रंथों में शुमार है जो आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जा रहे हैं। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर इंसान के सामने आती है। आज हम आपको गीता के कुछ चुनिंदा प्रबंधन सूत्रों से रू-ब-रू करवा रहे हैं-

श्लोक- त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तरमादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

अर्थ- काम, क्रोध व लोभ। यह तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात् अधोगति में ले जाने वाले हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।

मैनेजमेंट सूत्र (Management Sutra)
काम यानी इच्छाएं, गुस्सा व लालच ही सभी बुराइयों के मूल कारण हैं। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण जी ने इन सभी को नरक का द्वार (Hell Gate) कहा है। जिस भी मनुष्य में ये 3 अवगुण होते हैं, वह हमेशा दूसरों को दुख पहुंचाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहते हैं। अगर हम किसी लक्ष्य (Target) को पाना चाहते हैं तो ये 3 अवगुण हमें हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए। क्योंकि जब तक ये अवगुण हमारे मन में रहेंगे, हमारा मन अपने लक्ष्य से भटकता रहेगा और आत्मा को शन्ति नहि मिलेगी।

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श्लोक- तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

अर्थ- श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्यों को चाहिए कि वह संपूर्ण इंद्रियों को आपने वश में रखे और विवेकनुसर कार्य करे , क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है, अन्यथा वह व्यक्ति बुद्धिहीन ही माना जयेगा|

मैनेजमेंट सूत्र
जीभ, त्वचा, आंखें, कान, नाक इत्यादि मनुष्य की इंद्रीयां ही कही गई हैं। इन्हीं के माध्यम से मनुष्य विभिन्न सांसारिक सुखों का आनंद (Enjoy) लेता है जैसे- जीभ अलग-अलग स्वाद चखकर संतुष्ट होती है। सुंदर दृश्य देखकर आंखों को सुकून मिलता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो मनुष्य अपनी इंद्रीयों पर काबू (Control) रखता है उसी की बुद्धि स्थिर होती है। जिसकी बुद्धि स्थिर होगी, वही व्यक्ति अपने क्षेत्र में बुलंदी की ऊंचाइयों को छूता है और जीवन के कर्तव्यों का निर्वाह पूरी ईमानदारी से करता है।

श्लोक- योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

अर्थ- हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का मन त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।

मैनेजमेंट सूत्र
धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों (Mandir) तक सीमित रह जाते हैं या हमे यही तक सीमित रखा जाता है। हमारे ग्रंथों (Granth) ने कर्तव्य को ही धर्म बताया है। भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ (Profit-Loss) का विचार नहीं करना चाहिए अगर ऐसा होगा तो आप अपना पूरा ध्यान उस कार्य कि तरफ नही लगा सकोगे । बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर ही काम करना चाहिए। इससे आपको परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा।

मन में शांति होगी तो परमात्मा (Parmatma) से आपका मिलन योग आसानी से होगा। आजकल के युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है जबकि ऐसा गलत है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार वह उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।

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श्लोक- नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।

अर्थ- योग रहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती। ऐसे भावनारहित इनसान को कभी शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।

मैनेजमेंट सूत्र
हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसे दुनिया का हर सुख प्राप्त (Every Happiness of the World) हो, इसके लिए वह हर जगह भटकता रहता है, लेकिन सुख का मूल तो उसके अपने मन में ही स्थित होता है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, आलस्य (Laziness) आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना ( आत्मज्ञान) नहीं होती। और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भी प्रकार से शांति नहीं मिलती और जिसके मन में शांति न हो, उसे सुख कहां से प्राप्त होगा। अत: सुख प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है।

श्लोक- विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।

अर्थ- जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही केवल उसे ही शांति प्राप्त होती है।

मैनेजमेंट सूत्र
यहां भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को कभी भी शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कार्य करते हैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा ही हमें कमजोर कर देती है। और मन मुताबिक कार्य ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशांत होने लगता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से ही अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य (Human) को शांति प्राप्त होगी।

श्लोक- न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।

अर्थ- कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है।

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मैनेजमेंट सूत्र
बुरे परिणामों के डर से अगर हर कोई यही सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे, तो ये हमारी मूर्खता (Stupidity) है। खाली बैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समय की हानि (Loss of Time) के रुप में मिलता ही मिलता है। सारे जीव प्रकृति यानी परमात्मा के अधीन होते हैं, प्रकृति (Nature) हमसे अपने अनुसार कर्म करवा ही लेगी। और उसका परिणाम भी हमे मिलेगा ही। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए और ख़ुद को चुस्त दुरुस्त रखना चाहिए|

श्लोक- नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

अर्थ- तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म करता चल, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ कहलाता है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहींहोगा।

मैनेजमेंट सूत्र
श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से मनुष्यों को समझाते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म (Dharma) के अनुसार कर्म (Karam) करना चाहिए जैसे- विद्यार्थी (Student) का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक (Sainik) का कर्म है देश की रक्षा करना। जो लोग कर्म नहीं करते, उनसे श्रेष्ठ वे लोग होते हैं जो अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि बिना कर्म किए तो शरीर का पालन-पोषण करना भी संभव नहीं है। जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वो पूरा करना ही चाहिए।

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