महाभारत के किस्से कहानियाँ और रहस्य- इस मंदिर में की जाती है महाभारत के सबसे बड़े खलनायक समझे जाने वाले दुर्योधन की पूजा – Mahabharat ke Kisse, kahaniya aur Rahasya- is mandir mein ki jaati hai mahabharat ke sabse bade khalnayak duryodhan ki pooja
महाभारत के किस्से कहानियाँ और रहस्य- इस मंदिर में की जाती है महाभारत के सबसे बड़े खलनायक समझे जाने वाले दुर्योधन की पूजा – Mahabharat ke Kisse, kahaniya aur Rahasya- is mandir mein ki jaati hai mahabharat ke sabse bade khalnayak duryodhan ki pooja
सत्य-असत्य, बेईमानी-ईमानदारी, पाप-पुण्य जैसे शब्द (words) एक दूसरे से अलग करके नहीं समझे जा सकते. एक-दूसरे के बिना इनका अस्तित्व भी शायद सम्भव (possible) नहीं हो सकता. उसी तरह जयसंहिता यानी महाभारत (mahabharat) में कौरवों के बिना पांडवों की चर्चा महज कल्पना ही कहलाती है. इसी बात को सही साबित करते हुए नीचे लिखी पंक्तियाँ (lines) एक ऐसे मंदिर के बारे में है जो ना ही किसी देवता का है और देवी की तो बिल्कुल नहीं.
यह मंदिर कौरवों के प्रतिनिधि और महाभारत में अब तक खल समझे जाने वाले पात्र धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की है. उत्तराखंड (uttarakhand) के उत्तरकाशी (uttarkashi) जिले में दुर्योधन के मंदिर तो हैं ही कर्ण के भी हैं. नेतवार से 12 किलोमीटर दूर ‘हर की दून’ सड़क पर स्थित ‘सौर’ गांव में दुर्योधन का यह मंदिर (mandir/temple) है. कर्ण मंदिर नेतवार से करीब डेढ़ मील दूर ‘सारनौल’ गाँव में है.
इन गाँवों (villages) की यह भूमि भुब्रूवाहन नामक महान योद्धा (warrior) की धरती है. मान्यता है कि भुब्रूवाहन पाताल लोक का राजा था और कौरवों और पांडवों के बीच कुरूक्षेत्र (kurukshetra) मेंं हो रहे युद्ध का हिस्सा बनना चाहता था. अपने हृदय में युद्ध की चाहत लिये वह धरती पर तो आ गया लेकिन भगवान कृष्ण ने बड़ी ही चालाकी से उसे युद्ध से वंचित कर दिया. कृष्ण को यह भय था कि भुब्रूवाहन अर्जुन को परास्त (defeat) कर सकता है इसलिये उन्होंने उसे एक चुनौती दी.
यह चुनौती भुब्रूवाहन को एक ही तीर से एक पेड़ के सभी पत्तों को छेदने की थी. उसकी नजर बचाकर कृष्ण ने एक पत्ता तोड़कर अपने पैर के नीचे दबा लिया. लेकिन भुब्रूवाहन की तरकश (archer) से निकला तीर पेड़ पर मौजूद सभी पत्तों को छेदने के बाद कृष्ण के पैर की ओर बढ़ने लगा तो उन्होंने अपना पैर पत्ते (leaf) पर से हटा लिया. इसके बावजूद कृष्ण भुब्रूवाहन को युद्ध से दूर रखना चाहते थे. अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने उसे निष्पक्ष रहने को कहा जिसका अर्थ युद्ध से दूर रहना था जो भुब्रूवाहन की चाहत के बिल्कुल विपरीत (opposite) था. अपनी बात न बनते देख उन्होंने भुब्रूवाहन का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया.
इस तरह कृष्ण ने युद्ध शुरू होने से पहले ही भुब्रूवाहन का सिर धड़ से अलग कर दिया. लेकिन उसकी चाहत अभी भी नहीं मरी थी. उसने कृष्ण से युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की और भगवान कृष्ण ने उसकी यह इच्छा पूरी कर दी. उन्होंने भुब्रूवाहन के सिर को वहाँ पास के एक पेड़ पर टांग दिया जिससे वह महाभारत का पूरा युद्ध देख सके. बड़े-बुजुर्गों का मानना है कि जब भी महाभारत के युद्ध में कौरवों की रणनीति विफल होती तब भुब्रूवाहन जोर-जोर से चिल्लाकर उनसे रणनीति बदलने के लिए कहता था. हालांकि यह कहानी (story) घटोत्कच पुत्र बर्बरीक की कहानी से मिलती जुलती है. दुर्योधन और कर्ण भुब्रूवाहन के प्रशंसक थे लेकिन वो उसके कहे अनुसार रणनीति बदलने में सफल नहीं हो पाये. इस प्रकार पांंडव (pandav) वह युद्ध जीतने में सफल रहे.
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